Kabir ke Dohe - कबीर दास के दोहे अर्थ सहित हिंदी में
Kabir ke dohe with meaning in hindi : कबीर या भगत कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे । इनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया, वे हिन्दू धर्म व इस्लाम को न मानते हुए धर्म निरपेक्ष थे । हम आप सभी के लिये Kabir das ke dohe लेकर आये है , यहाँ पर आप सभी को Kabir ke dohe मिलेगे जो आम जीवन पे बनाये गये हैं इसलिए आप सभी से निवेदन है कि अगर आपको Kabir ke dohe पसंद आते हैं तो जरुर बतायेगा, और अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करे। यहाँ आपको Kabir ke dohe in hindi with meaning और कबीर दास के दोहे अर्थ सहित हिंदी में मिलेंगे।
Kabir ke dohe in hindi
-1
बुरा जो देखन में चला, बुरा न मिलिया. कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
अर्थ-
जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला
तो मुझे कोई बुरा न मिला।
जब मैंने अपने मन में झाक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है।
- 2
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
अर्थ -
बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही
लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके।
कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले,अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।
- 3
माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर।
आसा त्रिसंना न मुई, यों कंही गए कबीर ।
अर्थ-
कबीर कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन्। शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा कई बार कह चुके हैं।
- 4
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥
अर्थ-
कबीर दास जी कहते हैं कि दुःख के समय सभी भगवानु को याद करते हैं पर सुख में कोई नहीं करता। यदि सुख में भी भगवान् को याद किया जाए तो दु:ख हो ही क्यों!
Famous Kabir ke dohe
- 5
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखां न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥
अर्थ-
कबीर दस जी कहते हैं कि परमात्मां तुम मुझे इतना दो कि जिसमे बस मेरा गुजरा चल जाये , मैं खुद भी अपना पेट पाल सकूँ और आने वाले मेहमानो को भी भोजन करा सकूँ।
-6
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥
अर्थ-
कबीर दास जी समय की महत्ता बताते हुए कहते हैं कि जो कल करना है उसे आज करो और और जो आज करना है उसे अभी करो, कुछ ही समय में जीवन खत्म हो जायेगा फिर तुम क्या कर पाओगे !!
-7
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट।
पाछे फिर पछूताओगे, प्राण जाहि जब छूट ॥
अर्थ-
कबीर दास जी कहते हैं कि दुःख के समय सभी भगवान को याद करते हैं पर सुख में कोई नहीं करता। यदि सुख में भी भगवान को याद किया जाए तो दु:ख हो ही क्यों!
- 8
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ।
अर्थ-
जो प्रयुत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पों ही लेते हैं। जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।
Kabir ke dohe with Meaning in hindi
- 9
निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय,
बिना पानी, बिना साबुन, निर्मल करे सुभाय।
अर्थ-
जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अंधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ करता है।
-10
मन जाणे सब बात जांणत ही औगुन क़रै ।
कुसलात कर दीपक कूंवै पड़े ॥
अर्थ-
काहे की मन सब बातों को जानता है, जानता हुआ भी अवगुणों में फंस जाता है जो दीपक हाथ में पकडे हुए भी कुंए में गिर पड़े उसकी कुशल कैसी?
-11
आछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत।
अबं पछुताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत।।
अर्थ-
देखते ही देखते सब भले दिन-अच्छा समय बीतता चला गया तुमने प्रभु से ली नहीं लगाई प्यार नहीं किया समय बीत जाने पर पछतांने से क्या मिलेगा? पहले जागरूक न थे, ठीक उसी तरह जैसे कोई किसान अपने खेत की
रखवाली ही न करे और देखते ही देखते पंछी उसकी फसल बर्बाद कर जाएं।
-12
कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं- ।
पारै पहुंचे नाव ज्यौं मिलिके बिछुरी जाहिं ॥
अर्थ-
इस जगत में न कोई हमारा अपना है और न ही हम किसी के! जैसे नांव के नदी पार पहुँचने पर उसमें मिलकर बैठे हुए सब यात्री बिछुड़ जाते हैं वैसे ही हम सब मिलकर बिछुड़ने वाले हैं। सब सांसारिक सम्बन्ध यहीं छूट जाने वाले हैं।
Kabir ke dohe for class 10
-13
मन के हारे हार है मन के जीते जीत।
कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत ॥
अर्थ-
जीवन में जय पराजयं केवल मन की भावनाएं हैं, यदि मनुष्य मन में हार गया, निराश हो गया तो पराजय है और यदि उसने मन को जीत लियां तो वह विजेता है, ईश्वर को भी मन के विश्वास से ही पा सकते हैं, यदि प्राप्ति का भरोसा ही नहीं तो कैसे पाएंगे?
-14
जाति न पूछी साधू की पूछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तरवार को पड़ा रहन दो म्यान ॥
अर्थ-
सच्चा साधु सब प्रकार के भेदभावों से ऊपर उठ जाता है, उससे यह न पूछो की वह किस जाति का है कितना ज्ञानी है यह जानना महत्वपूर्ण है, साधु की जाति म्यान के समान है और उसका ज्ञान तलवार की धार के समान है,
तलवार की धार ही उसका मूल्य है, उसकी म्यान तलवार के मूल्य को नहीं बढ़ाती।
-15
साधु ऐसा चाहिए; जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।
अर्थ-
इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ करने वालां सूप होता है। जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।
-16
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मंनका फेर।
अर्थ-
कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो।
Top 40 Kabir das ke dohe in hindi
-17
कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू- से दोस्ती, न काहूं से बैर।
अर्थ-
इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो !
-18
करता था तो क्यूं रहया, जब करि क्यूं पछिताय
बोये पेड़ बबूल का, अम्ब कहाँ ते ख़ाय॥
अर्थ-
यदि तु अपने को कर्ता समझता, था तो
चुप क्यों बैठा रहा? और अब कर्म करके पश्चात्ताप क्यों करता है? पेड़ तो बबूल का लगाया है, फिर आम खाने को कहाँ से मिलें ?
- 19
जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाही । प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहिं ।।
अर्थ-
जब तक मन मै अहकार था तब तक इश्वर से साक्षात्कार ना हूआ, जब अहम समाप्त हुआ तभी प्रभु मिले, जब इश्वर का साक्षात्कार हुआ तब अहम स्वत: नष्ट हो गया, इश्वर की सत्ता का बोध तभी हुआ जब अंहकार गया, प्रेम मे द्वेत का भाव नहीं हो सकता , प्रेम की सकरी-पतली गली मैं बस एक ही समा सकता हैं - अहम् या परम। परम कि प्राप्ति के लिए अहम् का विसर्जन आवश्यक हैं।
Kabir ke dohe for class 5
- 20
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जेसे पेड़ खजूर । पन्छी को छाया नहीं फ़ल लागे अति दूर।।
अर्थ-
खजूर के पेड़ के समान बड़ा होने का क्या लाभ, जो ना ठीक से किसी को छाँव दे पाता है और ना ही उसके फ़ल सूलभ होते हैं।
- 21
प्रीतम को पतिया लिखू, जो कहू होय विदेश
तन मै मन मै नैन मै ताको कहा संदेश ।।
अर्थ-
मै अपने प्रियतम अपने इश्वर को अवश्य पत्र लिखता अगर वे कहिं दूर देश या विदेशों मै होते, किंतु जो इशवर मेरे शरीर, मेरे ह्दय में, मेरे रोम - रोम मै विराजमान है उनको कैसे पत्र लिखु।
- 22
प्रेम छिपाय ना छिपे, जा घर परगट हो
जो पाये मूख बोले नही नयन देत हैं रोय
अर्थ-
सचा प्रेम जब ह्दय मै प्रकट होता है तो वह छिपाये नहीं छिपता। उसका अपने इश्वर से प्रेम अटूट होता हैं इसलिए भले ही वो अपने मुख से कुछ ना बोले लेकिन उसके आँखो से बहती अविरल धारा परमात्मा के प्रति अपने सच्चे प्रकट कर देती हैं।
- 23
प्रेमी ढूंढत मैं फिरु, प्रेमी मिले ना कोये।
प्रेमी से प्रेमी मिले, विष से अमृत होये ।।
अर्थ-
मै ससार मैं सच्चे प्रेमी को ढूढते फिर रहा हूँ लेकिन कोई सच्चा प्रेमी नहीं मिल रहा है, एक सच्चा प्रेमी परमात्मा के अलावा कोई और नहीं हो सकता, यदि परमात्मा रुपी सच्चे प्रेमी से मेरा मिलन हो जाये तो मैं भी विष से अमृत हो जाउ।
-24
सब रसायन हम किया, प्रेम समान ना कोये।
रचक तन मै सचरे, सब तन कंचन होये।।
अर्थ-
इस संसार के सभी रसो को पीकर देख लिया लेकिन किसी भी रस मैं इतना आनंद नहीं है जितना सच्चे प्रेम के रस मैं है, प्रभु से मिला थोड़े सा प्रेम भी अगर मेरे शरीर में विचरण कर जाये तो यह शरीर कंचन के समान प्रकाशमान हो जाता हैं।
-25
कबीर कहा गरबियौ, ऊंचे देखि अवास ।
काल्हि परयौ भू लेटना ऊपरि जामे घास॥
अर्थ-
कबीर कहते है कि ऊंचे भवनों को देख कर क्या गर्व करते हो ? कल या परसों ये ऊंचाइयां और धरती पर लेट जाएंगे ध्वस्त हो जाएंगे और ऊपर से घास उगने लगेगी ! वीरान सुनसान हो जाएगा जो अभी हंसता खिलखिलाता घर आँगन है ! इसलिए कभी गर्व न करना चाहिए
-26
जांमण मरण बिचारि करि कूड़े काम निबारि ।
जिनि पंथूं तुझ चालणा सोई पंथ संवारि ॥
अर्थ-
जन्म और मरण का विचार करके , बुरे कर्मों को छोड़ दे. जिस मार्ग पर तुझे चलना है उसी मार्ग का स्मरण कर उसे ही याद रख उसे ही संवार सुन्दर बना
- 27
बिन रखवाले बाहिरा चिड़िये खाया खेत ।
आधा परधा ऊबरै, चेती सकै तो चेत ॥
अर्थ-
रखवाले के बिना बाहर से चिड़ियों ने खेत खा लिया. कुछ खेत अब भी बचा है यदि सावधान हो सकते हो तो हो जाओ उसे बचा लो
- 28
कबीर देवल ढहि पड्या ईंट भई सेंवार ।
करी चिजारा सौं प्रीतड़ी ज्यूं ढहे न दूजी बार ॥
अर्थ-
कबीर कहते हैं शरीर रूपी देवालय नष्ट हो गया उसकी ईंट - ईंट शैवाल अर्थात काई में बदल गई, इस देवालय को बनाने वाले प्रभु से प्रेम कर जिससे यह देवालय दूसरी बार नष्ट न हो
- 29
कबीर मंदिर लाख का, जडियां हीरे लालि ।
दिवस चारि का पेषणा, बिनस जाएगा कालि ॥
अर्थ-
यह शरीर लाख का बना मंदिर है जिसमें हीरे और लाल जड़े हुए हैं.यह चार दिन का खिलौना है कल ही नष्ट हो जाएगा. शरीर नश्वर है
- 30
कबीर यह तनु जात है सकै तो लेहू बहोरि ।
नंगे हाथूं ते गए जिनके लाख करोडि॥
अर्थ-
यह शरीर नष्ट होने वाला है हो सके तो अब भी संभल जाओ, इसे संभाल लो ! जिनके पास लाखों करोड़ों की संपत्ति थी वे भी यहाँ से खाली हाथ ही गए हैं
- 31
हू तन तो सब बन भया करम भए कुहांडि ।
आप आप कूँ काटि है, कहै कबीर बिचारि॥
अर्थ -
यह शरीर तो सब जंगल के समान है, हमारे कर्म ही कुल्हाड़ी के समान हैं, इस प्रकार हम खुद अपने आपको काट रहे हैं, यह बात कबीर सोच विचार कर कहते हैं
- 32
तेरा संगी कोई नहीं सब स्वारथ बंधी लोइ ।
मन परतीति न उपजै, जीव बेसास न होइ ॥
अर्थ -
तेरा साथी कोई भी नहीं है, सब मनुष्य स्वार्थ में बंधे हुए हैं, जब तक इस बात की प्रतीत, भरोसा मन में उत्पन्न नहीं होता तब तक आत्मा के प्रति विशवास जाग्रत नहीं होता
-33
मैं मैं मेरी जिनी करै, मेरी सूल बिनास ।
मेरी पग का पैषणा मेरी गल की पास ॥
अर्थ -
ममता और अहंकार में मत फंसो और बंधो – यह मेरा है कि रट मत लगाओ, ये विनाश के मूल हैं, जड़ हैं, कारण हैं, ममता पैरों की बेडी है और गले की फांसी है
-34
कबीर नाव जर्जरी कूड़े खेवनहार ।
हलके हलके तिरि गए बूड़े तिनि सर भार !॥
अर्थ-
कबीर कहते हैं कि जीवन की नौका टूटी फूटी है जर्जर है उसे खेने वाले मूर्ख हैं , जिनके सर पर विषय वासनाओं का बोझ है वे तो संसार सागर में डूब जाते हैं, संसारी हो कर रह जाते हैं दुनिया के धंधों से उबर नहीं पाते, उसी में उलझ कर रह जाते हैं पर जो इनसे मुक्त हैं, हलके हैं वे तर जाते हैं, पार लग जाते हैं,भव सागर में डूबने से बच जाते हैं
-35
मन जाणे सब बात जांणत ही औगुन करै ।
काहे की कुसलात कर दीपक कूंवै पड़े ॥
अर्थ -
मन सब बातों को जानता है जानता हुआ भी अवगुणों में फंस जाता है जो दीपक हाथ में पकडे हुए भी कुंए में गिर पड़े उसकी कुशल कैसी?
- 36
हिरदा भीतर आरसी मुख देखा नहीं जाई ।
मुख तो तौ परि देखिए जे मन की दुविधा जाई ॥
अर्थ -
ह्रदय के अंदर ही दर्पण है परन्तु, वासनाओं की मलिनता के कारण मुख का स्वरूप दिखाई ही नहीं देता, मुख या अपना चेहरा या वास्तविक स्वरूप तो तभी दिखाई पड सकता जब मन का संशय मिट जाए
- 37
मनहिं मनोरथ छांडी दे, तेरा किया न होइ ।
पाणी मैं घीव नीकसै, तो रूखा खाई न कोइ ॥
अर्थ -
मन की इच्छा छोड़ दो.उन्हें तुम अपने बल पर पूरा नहीं कर सकते, यदि जल से घी निकल आवे, तो रूखी रोटी कोई भी न खाएगा!
-38
माया मुई न मन मुवा, मरि मरि गया सरीर ।
आसा त्रिष्णा णा मुई यों कहि गया कबीर ॥
अर्थ-
न माया मरती है न मन शरीर न जाने कितनी बार मर चुका, आशा, तृष्णा कभी नहीं मरती, ऐसा कबीर कई बार कह चुके हैं
-39
कबीर सो धन संचिए जो आगे कूं होइ।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्या कोइ ॥
अर्थ -
कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम दे, सर पर धन की गठरी बांधकर ले जाते तो किसी को नहीं देखा
- 40
झूठे को झूठा मिले, दूंणा बंधे सनेह
झूठे को साँचा मिले तब ही टूटे नेह ॥
अर्थ -
जब झूठे आदमी को दूसरा झूठा आदमी मिलता है तो दूना प्रेम बढ़ता है, पर जब झूठे को एक सच्चा आदमी मिलता है तभी प्रेम टूट जाता है
- 41
करता केरे गुन बहुत औगुन कोई नाहिं।
जे दिल खोजों आपना, सब औगुन मुझ माहिं ॥
अर्थ -
प्रभु में गुण बहुत हैं, अवगुण कोई नहीं है,जब हम अपने ह्रदय की खोज करते हैं तब समस्त अवगुण अपने ही भीतर पाते हैं।
अगर ये कबीर के दोहे पर आपको हमारी ये पोस्त अची लगी तो इसे अपने दोस्तों के सात शेयर जरूर करे, तथा अपने जीवन में इनकी बातो को उतारे।